तुम नाराज़ भी नहीं हो, मैं मनाऊँ भी तो कैसे (अनुत्तरित प्रेम पर कविता)

Ritesh Singh
1 min readJan 16, 2021
Dante looks longingly at Beatrice (in yellow) as she passes by him in Dante and Beatrice by Henry Holiday

तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे
बड़ी दूर जा चुकी हो
पास आऊँ भी तो कैसे

तुम जहाँ कहीं भी जाओ
मैं पीछे-पीछे आऊँ
तुम कहीं भी लड़खड़ाओ
मैं कूद कर बचाऊँ

किन्तु तुम गिरी ही नहीं
मैं उठाऊँ भी तो कैसे
तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे

तुम कभी भी कष्ट पाओ
मैं हर तरह घटाऊँ
सर्द में गर्मी बन कर
रोग में अंग दे दूँ

पर कष्ट कब है तुमको
मैं जानूँ भी तो कैसे
तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे

चाहता हूँ कुछ मैं देना
जो तुम्हें भी हर्ष दे दे
कोई वस्तु हो या सेवा
कोई गीत हो या मेवा

देना चाहता हूँ जीवन
वह मैं दूँगा भी तो कैसे
तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे

ना संग आना मेरे
ना मुझसे प्रीति करना
मैं जिऊँ या मैं मरूँ अब
तुम न मुझको याद करना

बस एक विनती मेरी
खुश रहना कृष्ण जैसे
तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे

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