तुम नाराज़ भी नहीं हो, मैं मनाऊँ भी तो कैसे (अनुत्तरित प्रेम पर कविता)
तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे
बड़ी दूर जा चुकी हो
पास आऊँ भी तो कैसे
तुम जहाँ कहीं भी जाओ
मैं पीछे-पीछे आऊँ
तुम कहीं भी लड़खड़ाओ
मैं कूद कर बचाऊँ
किन्तु तुम गिरी ही नहीं
मैं उठाऊँ भी तो कैसे
तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे
तुम कभी भी कष्ट पाओ
मैं हर तरह घटाऊँ
सर्द में गर्मी बन कर
रोग में अंग दे दूँ
पर कष्ट कब है तुमको
मैं जानूँ भी तो कैसे
तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे
चाहता हूँ कुछ मैं देना
जो तुम्हें भी हर्ष दे दे
कोई वस्तु हो या सेवा
कोई गीत हो या मेवा
देना चाहता हूँ जीवन
वह मैं दूँगा भी तो कैसे
तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे
ना संग आना मेरे
ना मुझसे प्रीति करना
मैं जिऊँ या मैं मरूँ अब
तुम न मुझको याद करना
बस एक विनती मेरी
खुश रहना कृष्ण जैसे
तुम नाराज़ भी नहीं हो
मैं मनाऊँ भी तो कैसे